Tuesday 1 January 2013

ग्रीष्म ऋतुचर्या

ग्रीष्म ऋतुचर्या

वसंत ऋतु की समाप्ति के बाद ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है। अप्रैल, मई तथा जून के प्रारंभिक दिनों का समावेश ग्रीष्म ऋतु में होता है। इन दिनों में सूर्य की किरणें अत्यंत उष्ण होती हैं। इनके सम्पर्क से हवा रूक्ष बन जाती है और यह रूक्ष-उष्ण हवा अन्नद्रव्यों को सुखाकर शुष्क बना देती है तथा स्थिर चर सृष्टि में से आर्द्रता, चिकनाई का शोषण करती है। इस अत्यंत रूक्ष बनी हुई वायु के कारण, पैदा होने वाले अन्न-पदार्थों में कटु, तिक्त, कषाय रसों का प्राबल्य बढ़ता है और इनके सेवन से मनुष्यों में दुर्बलता आने लगती है। शरीर में वातदोष का संचय होने लगता है। अगर इन दिनों में वातप्रकोपक आहार-विहार करते रहे तो यही संचित वात ग्रीष्म के बाद आने वाली वर्षा ऋतु में अत्यंत प्रकुपित होकर विविध व्याधियों को आमंत्रण देता है। आयुर्वेद चिकित्सा-शास्त्र के अनुसार 'चय एव जयेत् दोषं।' अर्थात् दोष जब शरीर में संचित होने लगते हैं तभी उनका शमन करना चाहिए। अतः इस ऋतु में मधुर, तरल, सुपाच्य, हलके, जलीय, ताजे, स्निग्ध, शीत गुणयुक्त पदार्थों का सेवन करना चाहिए। जैसे कम मात्रा में श्रीखंड, घी से बनी मिठाइयाँ, आम, मक्खन, मिश्री आदि खानी चाहिए। इस ऋतु में प्राणियों के शरीर का जलीयांश कम होता है जिससे प्यास ज्यादा लगती है। शरीर में जलीयांश कम होने से पेट की बीमारियाँ, दस्त, उलटी, कमजोरी, बेचैनी आदि परेशानियाँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए ग्रीष्म ऋतु में कम आहार लेकर शीतल जल बार-बार पीना हितकर है।
आहारः ग्रीष्म ऋतु में साठी के पुराने चावल, गेहूँ, दूध, मक्खन, गौघृत के सेवन से शरीर में शीतलता, स्फूर्ति तथा शक्ति आती है। सब्जियों में लौकी, गिल्की, परवल, नींबू, करेला, केले के फूल, चौलाई, हरी ककड़ी, हरा धनिया, पुदीना और फलों में द्राक्ष, तरबूज, खरबूजा, एक-दो-केले, नारियल, मौसमी, आम, सेब, अनार, अंगूर का सेवन लाभदायी है।
इस ऋतु में तीखे, खट्टे, कसैले एवं कड़वे रसवाले पदार्थ नहीं खाने चाहिए। नमकीन, रूखा, तेज मिर्च-मसालेदार तथा तले हुए पदार्थ, बासी एवं दुर्गन्धयुक्त पदार्थ, दही, अमचूर, आचार, इमली आदि न खायें। गरमी से बचने के लिए बाजारू शीत पेय (कोल्ड ड्रिंक्स), आइस क्रीम, आइसफ्रूट, डिब्बाबंद फलों के रस का सेवन कदापि न करें। इनके सेवन से शरीर में कुछ समय के लिए शीतलता का आभास होता है परंतु ये पदार्थ पित्तवर्धक होने के कारण आंतरिक गर्मी बढ़ाते हैं। इनकी जगह कच्चे आम को भूनकर बनाया गया मीठा पना, पानी में नींबू का रस तथा मिश्री मिलाकर बनाया गया शरबत, जीरे की शिकंजी, ठंडाई, हरे नारियल का पानी, फलों का ताजा रस, दूध और चावल की खीर, गुलकंद आदि शीत तथा जलीय पदार्थों का सेवन करें। इससे सूर्य की अत्यंत उष्ण किरणों के दुष्प्रभाव से शरीर का रक्षण किया जा सकता है।
ग्रीष्म ऋतु में गर्मी अधिक होने के कारण चाय, कॉफी, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू आदि सर्वथा वर्ज्य हैं। इस ऋतु में पित्तदोष की प्रधानता से पित्त के रोग होते हैं जैसे कि दाह, उष्णता, मूर्च्छा, अपच, दस्त, नेत्रविकार आदि। अतः उनसे बचें। फ्रिज का ठंडा पानी पीने से गला, दाँत एवं आँतों पर बुरा प्रभाव पड़ता है इसलिए इन दिनों में मटके या सुराही का पानी पिएँ।
विहारः इस ऋतु में प्रातः पानी-प्रयोग, वायु-सेवन, योगासन, हलका व्यायाम एवं तेल-मालिश लाभदायक है। प्रातः सूर्योदय से पहले उठ जाएँ। शीतल जलाशय के किनारे अथवा बगीचे में घूमें। शीतल जलाशय के किनारे अथवा बगीचे में घूमें। शीतल पवन जहाँ आता हो वहाँ सोयें। शरीर पर चंदन, कपूर का लेप करें। रात को भोजन के बाद थोड़ा सा टहलकर बाद में खुली छत पर शुभ्र (सफेद) शय्या पर शयन करें। गर्मी के दिनों में सोने से दो घंटे पहले, ठंडे किये हुए दूध का अथवा ठंडाई का सेवन भी हितकारी होता है।
ग्रीष्म ऋतु में आदान काल के कारण शरीर की शक्ति का ह्रास होता रहता है। वात पैदा करने वाले आहार-विहार के कारण शरीर में वायु की वृद्धि होने लगती है। इस ऋतु में दिन बड़े और रात्रियाँ छोटी होती हैं। अतः दोपहर के समय थोड़ा सा विश्राम करना चाहिए। इससे इस ऋतु में धूप के कारण होने वाले रोग उत्पन्न नहीं हो पाते।
रात को देर तक जागना और सुबह देर तक सोये रहना त्याग दें। अधिक व्यायाम, अधिक परिश्रम, धूप में टहलना, अधिक उपवास, भूख-प्यास सहना तथा स्त्री-सहवास – ये सभी वर्जित हैं।

विशेषः इस ऋतु में मुलतानी मिट्टी से स्नान करना वरदान स्वरूप है। इससे जो लाभ होता है, साबुन से नहाने से उसका 1 प्रतिशत लाभ भी नहीं होता। जापानी लोग इसका खूब लाभ उठाते हैं। गर्मी को खींचने वाली, पित्तदोष का शमन करने वाली, रोमकूपों को खोलने वाली मुलतानी मिट्टी से स्नान करें और इसके लाभों का अनुभव करें।






 

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