Tuesday, 1 January 2013
शरद ऋतुचर्या
भाद्रपद
एवं आश्विन ये
शरद ऋतु के दो
महीने हैं।
शरद ऋतु
स्वच्छता के
बारे में
सावधान रहने की
ऋतु है अर्थात्
इस मौसम में
स्वच्छता
रखने की खास
जरूरत है। रोगाणाम्
शारदी माताः। अर्थात्
शरद ऋतु रोगों
की माता है।
शरद ऋतु
में
स्वाभाविक
रूप से ही
पित्तप्रकोप
होता है। इससे
इन दो महीनों
में ऐसा ही
आहार एवं औषधी
लेनी चाहिए जो
पित्त का शमन
करे। मध्याह्न
के समय पित्त
बढ़ता है।
तीखे नमकीन,
खट्टे, गरम
एवं दाह उत्पन्न
करने वाले
द्रव्यों का
सेवन,
मद्यपान, क्रोध
अथवा भय, धूप
में घूमना,
रात्रि-जागरण
एवं अधिक
उपवास – इनसे
पित्त बढ़ता
है। दही,
खट्टी छाछ,
इमली, टमाटर,
नींबू, कच्चे
आम, मिर्ची,
लहसुन, राई,
खमीर लाकर
बनाये गये व्यंजन
एवं उड़द जैसी
चीजें भी
पित्त की
वृद्धि करती
हैं।
इस ऋतु में
पित्तदोष की
शांति के लिए
ही शास्त्रकारों
द्वारा खीर
खाने, घी का
हलवा खाने तथा
श्राद्धकर्म
करने का आयोजन
किया गया है।
इसी उद्देश्य
से
चन्द्रविहार,
गरबा नृत्य
तथा शरद
पूर्णिमा के
उत्सव के
आयोजन का
विधान है।
गुड़ एवं
घूघरी (उबाली
हुई ज्वार-बाजरा
आदि) के सेवन
से तथा
निर्मल,
स्वच्छ वस्त्र
पहन कर फूल,
कपूर, चंदन
द्वारा पूजन
करने से मन
प्रफुल्लित
एवं शांत होकर
पित्तदोष के शमन
में सहायता
मिलती है।
इस ऋतु में
पित्त का
प्रकोप होकर
जो बुखार आता
है, उसमें
एकाध उपवास
रखकर नागरमोथ,
पित्तपापड़ा,
चंदन, वाला (खस)
एवं सोंठ
डालकर उबालकर
ठंडा किया हुआ
पानी पीना
चाहिए। पैरों
में घी घिसना
चाहिए। बुखार
उतरने के बाद
सावधानीपूर्वक
ऊपर की ही
औषधियों में
गिलोय, काली
द्राक्ष एवं
त्रिफला
मिलाकर उसका
काढ़ा बनाकर
पीना चाहिए।
व्यर्थ
जल्दबाजी के
कारण बुखार
उतारने की अंग्रजी
दवाओं का सेवन
न करें अन्यथा
पीलिया, यकृतदोष
(लीवर की सूजन),
आँव, लकवा,
टायफाइड, जहरी
मलेरिया,
पेशाब एवं
दस्त में रक्त
गिरना, शीतपित्त
जैसे नये-नये
रोग होते ही
रहेंगे। आजकल
कई लोगों का
ऐसा अनुभव है।
अतः अंग्रेजी
दवाओं से सदैव
सावधान रहें।
सावधानियाँ-
श्राद्ध
के दिनों में 16
दिन तक दूध,
चावल, खीर का सेवन
पित्तशामक
है। परवल,
मूँग, पका
पीला पेठा
(कद्दू) आदि का
भी सेवन कर
सकते हैं।
दूध के
विरुद्ध
पड़ने वाले
आहार जैसे की
सभी प्रकार की
खटाई, अदरक,
नमक, मांसाहार
आदि का त्याग
करें। दही,
छाछ, भिंडी,
ककड़ी आदि अम्लविपाकी
(पचने पर खटास
उत्पन्न करने
वाली) चीजों
का सेवन न
करें।
कड़वा रस
पित्तशामक
एवं ज्वर
प्रतिरोधी
है। अतः
कटुकी,
चिरायता, नीम
की अंतरछाल,
गुडुच, करेले,
सुदर्शन
चूर्ण,
इन्द्रजौ
(कुटज) आदि के
सेवन हितावह
है।
धूप में न
घूमें।
श्राद्ध के
दिनों में एवं
नवरात्रि में
पितृपूजन
हेतु संयमी
रहना चाहिए। कड़क
ब्रह्मचर्य
का पालन करना
चाहिए। यौवन
सुरक्षा
पुस्तक का पाठ
करने से
ब्रह्मचर्य
में मदद
मिलेगी।
इन दिनों
में
रात्रिजागरण,
रात्रिभ्रमण
अच्छा होता है
इसीलिए
नवरात्रि आदि
का आयोजन किया
जाता है।
रात्रिजागरण
12 बजे तक का ही
माना जाता है।
अधिक जागरण से
और सुबह एवं दोपहर
को सोने से
त्रिदोष
प्रकुपित
होते हैं जिससे
स्वास्थ्य
बिगड़ता है।
शरदपूनम
की शीतल
रात्रि छत पर
चन्द्रमा की
किरणों में
रखी हुई
दूध-पोहे अथवा
दूध-चावल की खीर
सर्वप्रिय,
पित्तशामक,
शीतल एवं
सात्त्विक
आहार है। इस
रात्रि में
ध्यान, भजन,
सत्संग,
कीर्तन,
चन्द्रदर्शन
आदि शारीरिक व
मानसिक
आरोग्यता के
लिए अत्यंत
लाभदायक है।
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