Thursday, 21 February 2013
आप चाकलेट खा रहे हैं या निर्दोष बछड़ों का मांस?
आप चाकलेट खा रहे
हैं या निर्दोष बछड़ों का मांस?
चाकलेट का नाम सुनते ही बच्चों में गुदगुदी न हो, ऐसा हो ही नहीं
सकता। बच्चों को खुश करने का प्रचलित साधन है चाकलेट। बच्चों में ही नहीं, वरन् किशोरों तथा युवा वर्ग में भी चाकलेट ने अपना विशेष स्थान बना रखा
है। पिछले कुछ समय से टॉफियों तथा चाकलेटों का निर्माण करने वाली अनेक कंपनियों
द्वारा अपने उत्पादों में आपत्तिजनक अखाद्य पदार्थ मिलाये जाने की खबरे सामने आ
रही हैं। कई कंपनियों के उत्पादों में तो हानिकारक रसायनों के साथ-साथ गायों की
चर्बी मिलाने तक की बात का रहस्योदघाटन हुआ है।
गुजरात के समाचार पत्र गुजरात समाचार में प्रकाशित एक
समाचार के अनुसार नेस्ले यू.के.लिमिटेड द्वारा निर्मित किटकेट नामक चाकलेट में
कोमल बछड़ों के रेनेट (मांस) का उपयोग किया जाता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है
कि किटकेट बच्चों में खूब लोकप्रिय है। अधिकतर शाकाहारी परिवारों में भी इसे खाया
जाता है। नेस्ले यू.के.लिमिटेड की न्यूट्रिशन आफिसर श्रीमति वाल एन्डर्सन ने अपने
एक पत्र में बतायाः “ किटकेट के निर्माण में कोमल बछड़ों के रेनेट का
उपयोग किया जाता है। फलतः किटकेट शाकाहारियों के खाने योग्य नहीं है। “ इस पत्र को अन्तर्राष्टीय पत्रिका
यंग जैन्स में प्रकाशित किया गया था। सावधान रहो, ऐसी कंपनियों के कुचक्रों से!
टेलिविज़न पर अपने उत्पादों को शुद्ध दूध से बनते हुए दिखाने वाली नेस्ले लिमिटेड
के इस उत्पाद में दूध तो नहीं परन्तु दूध पीने वाले अनेक कोमल बछड़ों के मांस की
प्रचुर मात्रा अवश्य होती है। हमारे धन को अपने देशों में ले जाने वाली ऐसी अनेक
विदेशी कंपनियाँ हमारे सिद्धान्तों तथा परम्पराओं को तोड़ने में भी कोई कसर नहीं
छोड़ रही हैं। व्यापार तथा उदारीकरण की आड़ में भारतवासियों की भावनाओं के साथ
खिलवाड़ हो रहा है।
हालैण्ड की एक कंपनी वैनेमैली पूरे देश में धड़ल्ले
से फ्रूटेला टॉफी बेच रही। इस टॉफी में गाय की हड्डियों का चूरा मिला होता है, जो कि इस टॉफी के
डिब्बे पर स्पष्ट रूप से अंकित होता है। इस टॉफी में हड्डियों के चूर्ण के अलावा
डालडा, गोंद, एसिटिक एसिड तथा चीनी का
मिश्रण है, ऐसा डिब्बे पर फार्मूले (सूत्र) के रूप में अंकित
है। फ्रूटेला टॉफी ब्राजील में बनाई जा रही है तथा इस कंपनी का मुख्यालय हालैण्ड
के जुडिआई शहर में है। आपत्तिजनक पदार्थों से निर्मित यह टॉफी भारत सहित संसार के
अनेक अन्य देशों में भी धड़ल्ले से बेची जा रही है।
चीनी की अधिक मात्रा होने के कारण इन टॉफियों को खाने
से बचपन में ही दाँतों का सड़ना प्रारंभ हो जाता है तथा डायबिटीज़ एवं गले की अन्य
बीमारियों के पैदा होने की संभावना रहती है। हड्डियों के मिश्रण एवं एसिटिक एसिड
से कैंसर जैसे भयानक रोग भी हो सकते हैं।
सन् 1847 में अंग्रजों ने कारतूसों में गायों की
चर्बी का प्रयोग करके सनातन संस्कृति को खण्डित करने की साजिश की थी, परन्तु मंगल
पाण्डेय जैसे वीरों ने अपनी जान पर खेलकर उनकी इस चाल को असफल कर दिया। अभी फिर यह
नेस्ले कंपनी चालें चल रही है। अभी मंगल पाण्डेय जैसे वीरों की ज़रूरत है। ऐसे
वीरों को आगे आना चाहिए। लेखकों, पत्रकारों को सामने आना
चाहिए। देशभक्तों को सामने आना चाहिए। देश को खण्ड-खण्ड करने के मलिन मुरादेवालों
और हमारी संस्कृति पर कुठाराघात करने वालों के सबक सिखाना चाहिए। देव संस्कृति
भारतीय समाज की सेवा में सज्जनों को साहसी बनना चाहिए। इस ओर सरकार का भी ध्यान
खिंचना चाहिए।
ऐसे हानिकारक उत्पादों के उपभोग को बंद करके ही हम
अपनी संस्कृति की रक्षा कर सकते हैं। इसलिए हमारी संस्कृति को तोड़नेवाली ऐसी
कंपनियों के उत्पादों के बहिष्कार का संकल्प लेकर आज और अभी से भारतीय संस्कृति की
रक्षा में हम सबको कंधे-से-कंधा मिलाकर आगे आना चाहिए।
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