Tuesday, 1 January 2013
वर्षा ऋतुचर्या
वर्षा ऋतु
में वायु का
विशेष प्रकोप
तथा पित्त का
संचय होता है।
वर्षा ऋतु में
वातावरण के प्रभाव
के कारण
स्वाभाविक ही
जठराग्नि मंद
रहती है,
जिसके कारण
पाचनशक्ति कम
हो जाने से
अजीर्ण,
बुखार,
वायुदोष का
प्रकोप, सर्दी,
खाँसी, पेट के
रोग, कब्जियत,
अतिसार, प्रवाहिका,
आमवात,
संधिवात आदि
रोग होने की
संभावना रहती
है।
इन रोगों
से बचने के
लिए तथा पेट
की पाचक अग्नि
को सँभालने के
लिए आयुर्वेद
के अनुसार
उपवास तथा लघु
भोजन हितकर है।
इसलिए हमारे
आर्षदृष्टा
ऋषि-मुनियों
ने इस ऋतु में
अधिक-से-अधिक
उपवास का
संकेत कर धर्म
के द्वारा
शरीर के
स्वास्थ्य का
ध्यान रखा है।
इस ऋतु में
जल की
स्वच्छता पर
विशेष ध्यान
दें। जल
द्वारा
उत्पन्न होने
वाले उदर-विकार,
अतिसार,
प्रवाहिका
एवं हैजा जैसी
बीमारियों से
बचने के लिए
पानी को
उबालें, आधा
जल जाने पर
उतार कर ठंडा
होने दें,
तत्पश्चात्
हिलाये बिना
ही ऊपर का
पानी दूसरे
बर्तन में भर
दें एवं उसी
पानी का सेवन
करें। जल को
उबालकर ठंडा करके
पीना
सर्वश्रेष्ठ
उपाय है। आजकल
पानी को शुद्ध
करने हेतु
विविध फिल्टर
भी प्रयुक्त
किये जाते
हैं। उनका भी
उपयोग कर सकते
हैं। पीने के
लिए और स्नान
के लिए गंदे
पानी का प्रयोग
बिल्कुल न
करें क्योंकि
गंदे पानी के सेवन
से उदर व
त्वचा
सम्बन्धी
व्याधियाँ
पैदा हो जाती
हैं।
500 ग्राम
हरड़ और 50 ग्राम
सेंधा नमक का
मिश्रण बनाकर
प्रतिदिन 5-6 ग्राम
लेना चाहिए।
पथ्य
आहारः इस ऋतु में
वात की वृद्धि
होने के कारण
उसे शांत करने
के लिए मधुर,
अम्ल व लवण
रसयुक्त, हलके
व शीघ्र पचने
वाले तथा वात
का शमन करने
वाले पदार्थों
एवं व्यंजनों
से युक्त आहार
लेना चाहिए।
सब्जियों में
मेथी, सहिजन,
परवल, लौकी,
सरगवा, बथुआ, पालक
एवं सूरन
हितकर हैं।
सेवफल, मूँग,
गरम दूध,
लहसुन, अदरक,
सोंठ, अजवायन,
साठी के चावल,
पुराना अनाज,
गेहूँ, चावल,
जौ, खट्टे एवं
खारे पदार्थ,
दलिया, शहद,
प्याज, गाय का
घी, तिल एवं
सरसों का तेल,
महुए का
अरिष्ट, अनार,
द्राक्ष का
सेवन लाभदायी
है।
पूरी,
पकोड़े तथा
अन्य तले हुए
एवं गरम
तासीरवाले
खाद्य
पदार्थों का
सेवन अत्यंत
कम कर दें।
अपथ्य
आहारः गरिष्ठ
भोजन, उड़द,
अरहर, चौला
आदि दालें,
नदी, तालाब
एवं कुएँ का
बिना उबाला
हुआ पानी,
मैदे की
चीजें, ठंडे
पेय,
आइसक्रीम, मिठाई,
केला, मट्ठा,
अंकुरित अनाज,
पत्तियों वाली
सब्जियाँ
नहीं खाना
चाहिए तथा देवशयनी
एकादशी के बाद
आम नहीं खाना
चाहिए।
पथ्य
विहारः अंगमर्दन,
उबटन, स्वच्छ
हलके वस्त्र
पहनना योग्य
है।
अपथ्य
विहारः अति
व्यायाम,
स्त्रीसंग,
दिन में सोना,
रात्रि जागरण,
बारिश में
भीगना, नदी
में तैरना,
धूप में
बैठना, खुले
बदन घूमना
त्याज्य है।
इस ऋतु में
वातावरण में
नमी रहने के
कारण शरीर की
त्वचा ठीक से
नहीं सूखती।
अतः त्वचा
स्वच्छ, सूखी
व स्निग्ध बनी
रहे। इसका
उपाय करें ताकि
त्वचा के रोग
पैदा न हों।
इस ऋतु में
घरों के
आस-पास गंदा पानी
इकट्ठा न होने
दें, जिससे
मच्छरों से
बचाव हो सके।
इस ऋतु में
त्वचा के रोग,
मलेरिया,
टायफायड व पेट
के रोग अधिक
होते हैं। अतः
खाने पीने की
सभी वस्तुओं
को मक्खियों
एवं कीटाणुओं
से बचायें व
उन्हें साफ
करके ही
प्रयोग में
लें। बाजारू
दही व लस्सी
का सेवन न करें।
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