Friday 15 February 2013

शिव स्वरोदय(भाग-15)


शिव स्वरोदय(भाग-15)


इस अंक को प्रारम्भ करने के पहले यह बता देना आवश्यक है कि निम्नलिखित श्लोकों में प्राणायाम की प्रक्रिया और उससे होनेवाले लाभ की चर्चा की गयी है। पर, पाठकों से अनुरोध है कि वे प्राणायाम किसी सक्षम व्यक्ति से सीखकर ही अभ्यास करें, विशेषकर जिनमें कुम्भक प्राणायाम को सम्मिलित करना हो। प्राणायाम की अनगिनत प्रक्रियाएँ हैं और उनके प्रयोजन भी भिन्न हैं। विषय पर आने के पहले एकबार फिर पाठकों से अनुरोध है कि कुम्भक युक्त प्राणायाम एक सक्षम साधक के सान्निध्य और मार्गदर्शन में ही करना चाहिए।
पूरकः कुम्भकश्चैव रेचकश्च तृतीयकः।
ज्ञातव्यो योगिभिर्नित्यं देहसंशुद्धिहेतवे।।376।।



भावार्थ इस श्लोक में प्राणायाम के अंगों और उससे होनेवाले लाभ की ओर संकेत किया गया है। प्राणायाम में पूरक, कुम्भक और रेचक तीन क्रियाएँ होती हैं। योगी लोग इसे शरीर के विकारों को दूर करने के कारण के रूप में जानते हैं। अतएव इसका प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिए। पूरक का अर्थ साँस को अपनी पूरी क्षमता के अनुसार अन्दर लेना है। रेचक का अर्थ है साँस को पूर्णरूपेण बाहर छोड़ना। तथा कुम्भक का अर्थ है पूरक करने के बाद साँस को यथाशक्ति अन्दर या रेचक क्रिया के बाद साँस को बाहर रोकना। इसीलिए यह (कुम्भक) दो प्रकार का होता है- अन्तः कुम्भक और बाह्य कुम्भक।
English Translation – In this verse steps of breathing exercise and its benefits have been stated. There are three steps of breathing exercise- inhaling the breath with full capacity is called Purak, exhaling it fully is called Rechak and holding the breath inside after inhaling and outside after exhaling, as much as someone can do, is called Kumbhak (Antah and Bahya Kumbhak respectively). This exercise is known to Yogis for purification the body.
पूरकः कुरुते वृद्धिं धातुसाम्यं तथैव च।
कुम्भके स्तम्भनं कुर्याज्जीवरक्षाविवर्द्धनम्।।377।।
भावार्थ पूरक से शरीर की वृद्धि के लिए आवश्यक पोषण मिलता है और शरीर की रक्त, वीर्य आदि सप्त धातुओं में सन्तुलन आता है। कुम्भक से उचित प्राण-संचार होता है और जीवनी शक्ति में वृद्धि होती है।
English Translation – Inhalation nourishes and develops the body; and maintains balance in seven primary substances, i.e. blood, fat, seminal fluid etc. Holding of the breath regulates and increases vital energy in our body.
रेचको हरते पापं कुर्याद्योगपदं व्रजेत्।
पश्चातसंग्रामवत्तिष्ठेल्लयबन्धं च कारयेत्।।378।।
भावार्थ रेचक करने से शरीर का पाप मिटता है, अर्थात् शरीर और मन के विकार दूर होते हैं। इसके अभ्यास से साधक योगपद प्राप्त करता है (अर्थात् योगी हो जाता है) और शरीर में सर्वांगीण सन्तुलन स्थापित होता है तथा साधक मृत्युजयी बनता है।
English Translation – Exhalation removes sins from the body, it means it removes impurities from the body and mind. Its practitioner attains enlightenment and gets his body balanced in all respect and thus overcomes death.
कुम्भयेत्सहजं वायुं यथाशक्ति प्रकल्पयेत्।
रेचयेच्चन्द्रमार्गेण सूर्येणापूरयेत्सुधीः।।379।।
भावार्थ सुधी व्यक्ति को दाहिने नासिका रन्ध्र से साँस को अन्दर लेना चाहिए, फिर यथाशक्ति सहज ढंग से कुम्भक करना चाहिए और इसके बाद साँस को बाँए नासिका रन्ध्र से छोड़ना चाहिए।
English Translation – A wise person should therefore inhale the breath through right nostril, hold it as long as he can do easily and thereafter exhale it through left nostril.
चन्द्रं पिबति सूर्यश्च सूर्यं पिबति चन्द्रमाः।
अन्योन्यकालभावेन जीवेदाचन्द्रतारकम्।।380।।
भावार्थ जो लोग चन्द्र नाड़ी से साँस अन्दर लेकर सूर्य नाड़ी से रेचन करते हैं और फिर सूर्य नाड़ी से साँस अन्दर लेकर चन्द्र नाड़ी से उसका रेचन करते हैं, वे जब तक चन्द्रमा और तारे रहते हैं तब तक जीवित रहते हैं (अर्थात् दीर्घजीवी होते हैं)। यह अनुलोम-विलोम या नाड़ी-शोधक प्राणायाम की विधि है।
English Translation – The person, who inhales the breath through left nostril and exhales through right nostril; and again inhales through right nostril and exhales through left nostril, remains alive till the moon and stars exist. In other words his longevity goes up like anything.
स्वीयाङ्गे वहते नाडी तन्नाडीरोधनं कुरु।
मुखबन्धममुञ्चन्वै पवनं जायते युवा।।381।।
भावार्थ अपने शरीर में जो नाड़ी प्रवाहित हो रही हो, उससे साँस अन्दर भरकर और मुँह बन्दकर यथाशक्ति आन्तरिक कुम्भक करने से वृद्ध भी युवा हो जाता है।
English Translation –The breath should be taken through the nostril which is active and hold it inside as long as we can do easily. We should also take care that our mouth is closed, so that breathed air should not pass out through it. Practitioner of this technique becomes young.
मुखनासिकाकर्णान्तानङ्गुलीभिर्निरोधयेत्।
तत्त्वोदयमिति ज्ञेयं षण्मुखीकरणं प्रियम्।।382।।
भावार्थ मुख, नासिका, कान और आँखों को दोनों हाथों की उँगलियों से बन्दकर स्वर में सक्रिय तत्त्व के प्रति सचेत होने का अभ्यास करना चाहिए। इस अभ्यास को षण्मुखी मुद्रा कहते हैं।
षण्मुखी मुद्रा के अभ्यास की पूरी विधि शिवस्वरोदय के 150वें श्लोक पर चर्चा के दौरान दी गयी थी। य़ह विधि महान स्वरयोगी परमहंस स्वामी सत्यानन्द जी ने अपनी पुस्तक स्वर-योग में जिस प्रकार दी है, उसे यथावत यहाँ पुनः उद्धृत किया जा रहा है-
श्रुत्योरङ्गुष्ठकौ मध्याङ्गुल्यौ नासापुटद्वये।
वदनप्रान्तके चान्याङ्गुलीयर्दद्याच्च नेत्रयोः।।150।।
1. सर्वप्रथम किसी भी ध्यानोपयोगी आसन में बैठें।
2. आँखें बन्द कर लें, काकीमुद्रा में मुँह से साँस लें, साँस लेते समय ऐसा अनुभव करें कि प्राण मूलाधार से आज्ञाचक्र की ओर ऊपर की ओर अग्रसर हो रहा है।
3. (थोड़ा सिर इस प्रकार झुकाना है कि ठोड़ी छाती को स्पर्श न करे) और चेतना को आज्ञाचक्र पर टिकाएँ। साँस को जितनी देर तक आराम से रोक सकते हैं, अन्दर रोकें। साथ ही जैसा श्लोक में आँख, नाक, कान आदि अंगुलियों से बन्द करने को कहा गया है, वैसा करें, खेचरी मुद्रा (जीभ को उल्टा करके तालु से लगाना) के साथ अर्ध जालन्धर बन्ध लगाएँ।
4. सिर को सीधा करें और नाक से सामान्य ढंग से साँस छोड़ें।
5. यह एक चक्र हुआ। ऐसे पाँच चक्र करने चाहिए। प्रत्येक चक्र के बाद कुछ क्षणों तक विश्राम करें, आँख बन्द रखें। अभ्यास के बाद थोड़ी देर तक शांत बैठें और चिदाकाश (आँख बन्द करने पर सामने दिखने वाला रिक्त स्थान) को देखें। इसमें दिखायी पड़ने वाले रंग से सक्रिय तत्त्व की पहिचान करते हैं, अर्थात् पीले रंग से पृथ्वी, सफेद रंग से जल, लाल रंग से अग्नि, नीले या भूरे रंग से वायु और बिल्कुल काले या विभिन्न रंगों के मिश्रण से आकाश तत्त्व समझना चाहिए।
English Translation – We should close our mouth, nostrils, eyes and ears with the help of ten fingers of our both the hands and keep us aware of the Tattva active in the breath during the practice. This is called Shanmukhi Mudra (a kind of posture).
Method of this Mudra has been explained while translating verse No. 150 of Shivaswrodaya. The method is given there as described by the great Swar Yogi Paramahansa Satyananda Saraswati in his book Swar Yoga. The same is reproduced hereunder:
1. At the outset, we should sit in any comfortable meditative posture.
2. Then we should close our eyes, shape our lips like crow-beak, breathe through mouth with feeling that vital energy is moving from Muladhara Chakra (the place in the spinal column at the level of anus) towards Ajna Chakra (place between eyebrows).
3. We should hold breath inside as long as we can hold comfortably, simultaneously close ears, nose, mouth etc as mentioned in the verse, touch palate with tongue by folding it back side (Khechari Mudra), bend head a little down but chin should not touch the upper chest and feel our consciousness between eyebrows.
4. After that we should breathe out keeping our head straight.
5. This one cycle of this practice. We should practise it at least five times daily. After every cycle we may relax for few seconds, but eyes should be kept closed. After completion of the practice, we should sit silently with closed eyes and observe colour appearing before the eyes. The colour, which appears at that time, indicates the appearance of Tattva in the breath, i.e. appearance of yellow colour indicates earth, white indicates water, red- the fire, blue or grey- air and appearance of black colour or combination of different colours indicates ether.
तस्य रूपं गतिः स्वादो मण्डलं लक्षणं त्विदम्।
स वेत्ति मानवो लोके संसर्गादपि मार्गवित्।।383।।
भावार्थ जो योगी इस मुद्रा का प्रतिदिन अभ्यास करता है, वह तत्त्वों के आकार, गति, स्वाद, रंग और लक्षण को पहचानने में सक्षम हो जाता है। इससे उसके पास स्वस्थ और सफल सम्पर्क स्थापित करने की क्षमता आ जाती है।
English Translation – A person, who practices this technique daily, becomes capable to identify shape, motion, taste, and property of Tattvas. He acquires health and capacity to establish good relation.
निराशो निष्कलो योगी न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।
वासनामुन्मनां कृत्वा कालं जयति लीलया।।384।।
भावार्थ आशा और कामनाओं से मुक्त योगी चिन्तारहित होकर संसार में रहते हुए भी उससे निर्लिप्त रहता है, जैसे रंगमंच पर अभिनय कर रहा हो। इस प्रकार वह कालजयी हो जाता है।
English Translation – A yogi, who is free of all expectations, desires and concerns, lives in the world as an actor and thus he surpasses the death.
विश्वस्य वेदिकाशक्तिर्नेत्राभ्यां परिदृश्यते।
तत्रस्थं तु मनो यस्य याममात्रं भवेदिह।।385।।
भावार्थ विश्व को जाननेवाली आद्या शक्ति योगी को अपने नेत्रों से दिखाई देती है। अतएव योगी को अपने मन को उसी में स्थिर करना चाहिए।
English Translation – The cosmic power of this universe is seen by a Yogi with his eyes. He should therefore concentrate his mind on the same.
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तस्यायुर्वर्द्धते  नित्यं   घटिकात्रयमानतः।
शिवेनोक्तं पुरा तन्त्रे सिद्धस्य गुणगह्वरे।।386।।
भावार्थ इसके पूर्व प्राणायाम आदि के बताए साधनों का अभ्यास करनेवाले साधक की आयु तीन घटी रोज बढ़ती है। इस परम गुह्य (गोपनीय) ज्ञान का उपदेश भगवान शिव ने  माँ पार्वती को सिद्ध के गुणों के उद्गम स्थल (गुण-गह्वर) में दिया।
English Translation – A person who practices regularly breathing exercise and other practices described earlier, his life span increases daily about more than one hour daily. This secret knowledge of Swar science was preached by Lord Shiva to Goddess Parvati at the inner most spritual level.     
योगीपद्मासनस्थो गुदगतपवनं   सन्निरुद्धोर्ध्वमुच्चैस्तं
तस्यापानरन्ध्रे   क्रमजितमनिलं प्राणशक्त्या निरुद्धय।
एकीभूतं   सुषुम्नाविवरमुपगतं   ब्रह्मरन्ध्रे  च नीत्वा
निक्षिप्याकाशमार्गे शिवचरणरता यान्ति ते केSपि धन्याः।।387।।
भावार्थ योगी पद्मासन में बैठकर मूलबंध लगाकर अपान वायु को रोकता है और प्राणवायु को रोककर उसे सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से ब्रह्मरंध्र तक और फिर वहाँ से उसे आकाश (सहस्रार चक्र) में ले जाता है। जो योगी ऐसा करने में सफल होते हैं, वे ही धन्य हैं।
English Translation -  A yogi should sit in lotus posture along with Mulbandh (a kind Hatha-yogic practice, in which breath is held inside and anus is contracted and chin touches chest) and directs Pranic energy to Sahasrar Chakra through Sushumna channel and Brahma Randhra. Yogis who succeed in it, they are blessed. 
एतज्जानाति यो योगी एतत्पठति नित्यशः।
सर्वदुःखविनिर्मुक्तो लभते वाञ्छितं  फलम्।।388।।
भावार्थ जो योगी इस ज्ञान को जानता है और प्रतिदिन इस ग्रंथ का पाठ करता है, वह सभी दुखों से मुक्त होता है तथा अन्त में उसकी सारी मनोकामनाएँ पूरी होती है।
English Translation – A yogi, who is well versed in this science and recites this text daily, becomes free of all miseries and gets all his desires fulfilled.
स्वरज्ञानं भवेद्यस्य लक्ष्मीपदतले भवेत्।
सर्वत्र च शरीरेSपिसुखं तस्य सदा भवेत्।।389।।
भावार्थ जो स्वरज्ञान का नित्य अभ्यास कर इसे अपना बना लेता है, लक्ष्मी उसके चरणों में होती है। वह जहाँ कहीं भी रहता है, सभी शारीरिक सुख सदा उसके पास रहते हैं, अर्थात् मिलते हैं।
English Translation – A person, who practices techniques described in this science daily and becomes perfect in them, gets all physical pleasures wherever he is.
प्रणवः  सर्ववेदानां  ब्राह्मणानां  रविर्यथा।
मृत्युलोके तथा पूज्यः स्वरज्ञानी पुमानपि।।390।।
भावार्थ जिस प्रकार वेदों में प्रणव और ब्राह्मणों के लिए सूर्य पूज्य हैं, उसी प्रकार संसार में स्वर-योगी पूज्य होता है। 
English Translation – Pranava is as respectable in Vedas and the sun for Brahmanas, Swar-yogi is respected in the world in the same way.
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नाडीत्रयं विजानाति तत्त्वज्ञानं तथैव च।
नैव तेन  भवेत्तुल्यं  लक्षकोटिरसायनम्।।391।।

भावार्थ तीन नाडियों और पाँच तत्त्वों का जिन्हें सम्यक ज्ञान होता है, उन्हें समग्र ज्ञान हो जाता है। विभिन्न प्रकार की औषधियों, जड़ी-बूटियों अथवा अनेक प्रकार के रसायनों का ज्ञान भी उनकी बराबरी नहीं कर सकता। तीन नाड़ियों और पाँच तत्त्वों के ज्ञाता को इन चीजों की आवश्यकता नहीं पड़ती। क्योंकि वह इनकी सहायता से सब कुछ करने में समर्थ होता है, यहाँ तक कि मृत्यु को भी पराजित करने में सक्षम होता है।

English Translation – A person, who has perfected in the knowledge of three Nadis (channel)- Ida, Pingala and Sushumna; and five Tattvas- earth, water, fire, air and ether, he possesses perfect knowledge. The knowledge of medicine and medicinal plants, chemical drugs etc. cannot be compared to this knowledge. The person well versed in this knowledge never needs these things in his life. Because he is capable to do all the things with the help of knowledge he possesses, even he defeats the death. 

एकाक्षरप्रदातारं       नाडीभेदविवेचकम्।
पृथिव्यां नास्ति तद्द्रव्यं यद्दत्त्वा चानृणी भवेत्।।392।।

भावार्थ इस प्रकार के ज्ञान से सम्पन्न महात्मा यदि आपको इस विद्या का थोड़ा ज्ञान भी देता है, तो इससे बढ़कर इस विश्व में कुछ भी नहीं है तथा उसके ऋण से कभी भी उऋण नहीं हो सकते।

English Translation – A saint, who is competent in this science, gives a minor instruction to some in this field, he is lucky enough. Because nothing is more valuable in this world than the knowledge of what has been given.

स्वरतत्त्वं तथा युद्धे देविवश्यं स्त्रियस्तथा।
गर्भाधानं च रोगश्च कलाख्यनं तथोच्यते।।393।।

भावार्थ   भगवान शिव कहते हैं कि हे देवि, युद्ध, स्त्री-वशीकरण, गर्भाधान, व्याधि एवं मृत्युकाल के परिप्रेक्ष्य में मैंने तुम्हें स्वर और तत्त्वों का वर्णन किया है।
English Translation – Lord Shiva told Goddess that he has described Swara and Tattvas with reference to war, hypnotizing of women, proper way of conceiving a child, diseases and death timing.

एवं प्रवर्तितं लोके प्रसिद्धं सिद्धयोगिभिः।
चन्द्रार्कग्रहणे जाप्यं पठतां सिद्धिदायकम्।।394।।

भावार्थ इस संसार में सिद्धों और योगियों द्वारा प्रसिद्ध ज्ञान का प्रवर्तन किया गया है, उसका जो नियम-पूर्वक जप और पाठ करेगा तथा पालन करेगा, विशेषकर सूर्य और चन्द्र ग्रहण के समय, तो वह सिद्धिदायक होगा और उससे साधक को पूर्णत्व प्राप्त होगा।

English Translation – If the knowledge invented by the great Yogis and Siddhas in the world is practiced and studied regularly as per instruction therein, especially during the period of solar and lunar eclipse, the practitioner gets yogic accomplishments and becomes perfect.

स्वस्थाने तु समासीनो निद्रां चाहारमल्पकम्।
चिन्तयेत्परमात्मानं यो वेद स भवेत्कृती।।395।।

भावार्थ जो व्यक्ति अपने स्थान पर बैठकर परमात्मा का ध्यान करता है, अधिक नहीं सोता तथा मिताहारी (कम भोजन करनेवाला) है और उसे जानता है, वही कर्मशील होता है।

English Translation – A person who meditate on  the cosmic consiousness by sitting in his  convenient posture, takes less sleep and less food,  only knows him and he is the real man of action.
पिछले अंक में शिवस्वरोदय का समापन हुआ। यह निश्चित किया गया था कि कुछ ऐसे पहलुओं पर चर्चा की जाय, जिनका बिना किसी गुरु के अभ्यास किया जा सकता है और वे निरापद तथा लाभप्रद भी हो। इसी उद्देश्य से यह अंक लिखा जा रहा है। जबतक सक्षम गुरु न मिल जाय या गहन साधना करने की उत्कण्ठा न हो, इस विज्ञान में बताई गयी निम्नलिखित बातों का नियमित पालन किया जा सकता है। इससे आपको दैनिक जीवन के कार्यों में सफलता मिलेगी, आपके आत्मविश्वास का स्तर काफी ऊँचा रहेगा, हीन भावना से मुक्त रहेंगे और आपका स्वास्थ्य ठीक रहेगा।   
1.     प्रातः उठकर विस्तर पर ही बैठकर आँख बन्द किए हुए पता करें कि किस नाक से साँस चल रही है। यदि बायीं नाक से साँस चल रही हो, तो दक्षिण या पश्चिम की ओर मुँह कर लें। यदि दाहिनी नाक से साँस चल रही हो, तो उत्तर या पूर्व की ओर मुँह करके बैठ जाएँ। फिर जिस नाक से साँस चल रही है, उस हाथ की हथेली से उस ओर का चेहरा स्पर्श करें।
2.    उक्त कार्य करते समय दाहिने स्वर का प्रवाह हो, तो सूर्य का ध्यान करते हुए अनुभव करें कि सूर्य की किरणें आकर आपके हृदय में प्रवेश कर आपके शरीर को शक्ति प्रदान कर रही हैं। यदि बाएँ स्वर का प्रवाह हो, तो पूर्णिमा के चन्द्रमा का ध्यान करें और अनुभव करें कि चन्द्रमा की किरणें आपके हृदय में प्रवेश कर रही हैं और अमृत उड़ेल रही हैं।
3.    इसके बाद दोनों हाथेलियों को आवाहनी मुद्रा में एक साथ मिलाकर आँखें खोलें और जिस नाक से स्वर चल रहा है, उस हाथ की हथेली की तर्जनी उँगली के मूल को ध्यान केंद्रित करें, फिर हाथ मे निवास करने वाले देवी-देवताओं का दर्शन करने का प्रयास करें और साथ में निम्नलिखित श्लोक पढ़ते रहें-
कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।
करमूले तु गोविन्द प्रभाते करदर्शनम्।।
अर्थात कर (हाथ) के अग्र भाग में लक्ष्मी निवास करती हैं, हाथ के बीच में माँ सरस्वती और हाथ के मूल में स्वयं गोविन्द निवास करते हैं।
4.    तत्पश्चात् निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण करते हुए माँ पृथ्वी का स्मरण करें और साथ में पीले रंग की वर्गाकृति (तन्त्र और योग में पृथ्वी का बताया गया स्वरूप) का ध्यान करें-
समुद्रवसने    देवि     पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।।
फिर जो स्वर चल रहा हो, उस हाथ से माता पृथ्वी का स्पर्श करें और वही पैर जमीन पर रखकर विस्तर से नीचे उतरें।
इसके दूसरे भाग में अपनी दिनचर्या के निम्नलिखित कार्य स्वर के अनुसार करें-
1.     शौच सदा दाहिने स्वर के प्रवाहकाल में करें और लघुशंका (मूत्रत्याग) बाएँ स्वर के प्रवाहकाल में।
2.    भोजन दाहिने स्वर के प्रवाहकाल में करें और भोजन के तुरन्त बाद 10-15 मिनट तक बाईँ करवट लेटें।
3.    पानी सदा बाएँ स्वर के प्रवाह काल में पिएँ।
4.    दाहिने स्वर के प्रवाह काल में सोएँ और बाएँ स्वर के प्रवाह काल में उठें।
स्वरनिज्ञान की दृष्टि से निम्नलिखत कार्य स्वर के अनुसार करने पर शुभ परिणाम देखने को मिलते हैं-
1.     घर से बाहर जाते समय जो स्वर चल रहा हो, उसी पैर से दरवाजे से बाहर पहला कदम रखकर जाएँ।
2.    दूसरों के घर में प्रवेश के समय दाहिने स्वर का प्रवाह काल उत्तम होता है।
3.    जन-सभा को सम्बोधित करने या अध्ययन का प्रारम्भ करने के लिए बाएँ स्वर का चुनाव करना चाहिए।
4.    ध्यान, मांगलिक कार्य आदि का प्रारम्भ, गृहप्रवेश आदि के लिए बायाँ स्वर चुनना चाहिए।
5.    लम्बी यात्रा बाएँ स्वर के प्रवाहकाल में और छोटी यात्रा दाहिने स्वर के प्रवाहकाल में प्रारम्भ करनी चाहिए।
6.    दिन में बाएँ स्वर का और रात्रि में दाहिने स्वर का चलना शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सबसे अच्छा माना गया है।
इस प्रकार धीरे-धीरे एक-एक कर स्वर विज्ञान की बातों को अपनाते हुए हम अपने जीवन में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इस विषय को यही विराम दिया जा रहा है। स्वर-रूप भगवान शिव और माँ पार्वती आप सभी के जीवन को सुखमय और समृद्धिशाली बनाएँ।





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