विविध
व्याधियों
में
आहार-विहार
तैत्तीरीय
उपनिषद के
अनुसारः
'अन्नं
हि भूतानां
ज्येष्ठम्-तस्मात्
सर्वौषधमुच्यते।' अर्थात्
भोजन ही
प्राणियों की
सर्वश्रेष्ठ
औषधि है,
क्योंकि आहार
से ही शरीरस्थ
सप्तधातु,
त्रिदोष तथा
मलों की
उत्पत्ति
होती है।
युक्तियुक्त
आहार वायु,
पित्त और कफ –
इन तीनों
दोषों को समान
रखते हुए
आरोग्य प्रदान
करता है और
किसी कारण से
रोग उत्पन्न
हो भी जायें
तो आहार-विहार
के नियमों को
पालने से रोगों
को समूल नष्ट
किया जा सकता
है। आहार में
अनाज, दलहन, घी,
तेल, शाक, दूध,
जल, ईख तथा फल का समावेश
होता है।
अति
मिर्च-मसालेवाले,
अति नमक तथा
तेलयुक्त, पचने
में भारी
पदार्थ, दूध
पर विविध
प्रक्रिया करके
बनाये गये अति
शीत अथवा अति
उष्ण पदार्थ सदा
अपथ्यकर हैं।
दिन
में सोना,
कड़क धूप में
अथवा ठंडी हवा
में घूमना,
अति जागरण,
अति श्रम करना
अथवा नित्य बैठे
रहना,
वायु-मल-मूत्रादि
वेगों को
रोकना, ऊँची
आवाज में बात
करना, अति
मैथुन, क्रोध,
शोक आरोग्य
नाशक माने गये
हैं।
कोई भी
रोग हो, प्रथम
उपवास या लघु
अन्न लेना चाहिए
क्योंकि रोगाः
सर्वेऽपिमन्देऽग्नौ।
(अष्टांग हृदय
निदानस्थानः
12.1) प्रायः
सभी रोगों का
मूल मंदाग्नि
है। सर्वरोगाणां
मूलं
अजीर्णम्।
व्याधि
अनुसार आहार
विहारः
बुखारः
बुखार
में
सर्वप्रथम
उपवास रखें।
बुखार उतरने
पर 24 घंटे बाद
द्रव आहार
लें। इसके लिए
मूँग में 14 गुना
पानी
मिलायें।
मुलायम होने
तक पकायें, फिर
छानकर इसका
पानी
पिलायें। यह
पचने में हलका,
अग्निवर्धक,
मल-मूत्र और
दोषों का
अनुलोमन करने
वाला और बल
बढ़ाने वाला
है।
प्यास
लगने पर उबले
हुए पानी में
सोंठ मिलाकर
लें अथवा षडंगोदक
का प्रयोग
करें।
(नागरमोथ,
चंदन, सोंठ, खस,
काली खस
(सुगन्धवाली)
तथा
पित्तपापड़ा
पानी में
उबालकर
षडंगोदक
बनाया जाता
है।) षडंगोदक
के पान से
पित्त का शमन
होता है,
प्यास तथा
बुखार कम होते
हैं। बुखार के
समय पचने में भारी,
विदाह
उत्पन्न करने
वाले
पदार्थों का सेवन,
स्नान,
व्यायाम,
घूमना-फिरना
अहितकर है।
नये बुखार में
दूध और फल
सर्प विष के समान
है।
पांडुरोगः
गेहूँ,
पुराने साठी
के चावल, जौ,
मूँग, घी, दूध,
अनार, काले
अंगूर विशेष
पथ्यकर हैं।
शाकों में पालक,
तोरई, मूली,
परवल, लौकी और
फलों में
अंगूर, आम,
मौसमी, सेब
आदि पथ्यकर
हैं। गुड़,
भूने हुए चने,
काली द्राक्ष,
चुकन्दर,
गाजर, हरे
पत्तेवाली
सब्जियाँ
लाभदायी हैं।
पित्त बढ़ाने
वाला आहार, दिन
में सोना, अति
श्रम,
शोक-क्रोध
अहितकर हैं।
अम्लपित्तः
उपवास
रखें या हलका,
मधुर व
रसयुक्त आहार
लें। पुराने
जौ, गेहूँ,
चावल, मूँग,
परवल, पेठा,
लौकी, नारियल,
अनार, मिश्री,
शहद, गाय का
दूध और घी
विशेष पथ्यकर
हैं। तिल, उड़द,
कुलथी, नमक,
लहसुन, दही,
नया अनाज,
मूँगफली, गुड़,
मिर्च तथा गरम
मसाले का सेवन
न करें।
अजीर्णः
प्रथम
उपवास रखें।
बारंबार
थोड़ी-थोड़ी
मात्रा में
गुनगुना पानी
पीना हितकर
है। जठराग्नि
प्रदीप्त
होने पर
अर्थात्
अच्छी भूख
लगने पर मूँग
का पानी,
नींबू का शरबत,
छाछ आदि
द्रवाहार
लेने चाहिए।
बाद में मूँग
अथवा खिचड़ी
लें। पचने में
भारी, स्निग्ध
तथा अति
मात्रा में
आहार और भोजन
के बाद दिन
में सोना
हानिकारक है।
चर्मरोगः
पुराने
चावल तथा
गेहूँ, मूँग,
परवल, लौकी
तुरई विशेष पथ्यकर
हैं। अत्यंत
तीखे, खट्टे,
खारे पदार्थ,
दही, गुड़, मिष्ठान्न,
खमीरीकृत
पदार्थ, इमली,
टमाटर, मूँगफली,
फल, मछली आदि
वर्ज्य हैं।
साबुन,
सुगंधित तेल,
इत्र आदि का
उपयोग न करें।
चंदन चूर्ण
अथवा चने के
आटे या
मुलतानी
मिट्टी का
प्रयोग करें।
ढीले, सादे,
सूती वस्त्र
पहनें।
सफेद
दागः चर्मरोग
के अनुसार
पथ्यपालन
करें और दूध,
खट्टी चीजें,
नींबू, संतरा,
अमरूद, मौसमी
आदि फलों का
सेवन न करें।
संधिवात,
वातरोगः जौ की
रोटी, कुलथी,
साठी के लाल
चावल, परवल,
पुनर्नवा,
सहिजन की फली,
पपीता, अदरक,
लहसुन, अरंडी
का तेल, गोझरन
अर्क (आश्रम
में मिल सकता
है।) गर्म जल
सर्वश्रेष्ठ
हैं। भोजन में
गौघृत, तिल का
तेल हितकर हैं।
आलू, चना, मटर,
टमाटर, दही,
खट्टे तथा
पचने में भारी
पदार्थ
हानिकारक
हैं।
श्वास
(दमा)- अल्प
मात्रा में
द्रव, हलका,
उष्ण आहार
लें। रात्रि
को भोजन न
करें। स्नान
करने एवं पीने
के लिए उष्ण
जल का उपयोग
करें। गेहूँ,
बाजरा, मूँग
का सूप, लहसुन,
अदरक का उपयोग
करें। अति
शीत, खट्टे,
तले हुए
पदार्थों का
सेवन, धूल और
धुआँ
हानिकारक
हैं।
मिर्गीः
10 ग्राम
हींग ताबीज की
तरह कपड़े में
सिलाई करके
गले में पहनने
से मिर्गी के
दौरे रुक जाते
हैं।
भुनी
हुई हींग,
सोंठ, काली
मिर्च, पीपल,
काला नमक,
समान मात्रा
में पीसकर, 1 कप
पेठे के रस
में इसका 1
चम्मच चूर्ण
मिलाकर, नित्य
पीते रहने से
मिर्गी के
दौरे आने बंद
हो जाते हैं।
रेशम
के धागे में 21
जायफल पिरोकर
गले में पहनने
से भी मिर्गी
में लाभ होता
है।
0 comments:
Post a Comment