Saturday 2 February 2013

सब रोगों का मूलः प्रज्ञापराध


          सब रोगों का मूलः प्रज्ञापराध

चरक स्थान के शरीर स्थान में आता हैः
धीधृतिस्मृतिविभ्रष्टः कर्म यत्कुरुते अशुभम्।
प्रज्ञापराधं तं विद्यात् सर्वदोषप्रकोपणम्।।
'धी, धृति एवं स्मृति यानी बुद्धि, धैर्य और यादशक्ति – इन तीनों को भ्रष्ट करके अर्थात् इनकी अवहेलना करके जो व्यक्ति शारीरिक अथवा मानसिक अशुभ कार्यों को करता है, भूलें करता है उसे प्रज्ञापराध या बुद्धि का अपराध (अंतःकरण की अवहेलना) कहा जाता है, जो कि सर्वदोष अर्थात् वायु, पित्त, कफ को कुपित करने वाला है।
आयुर्वेद की दृष्टि से ये कुपित त्रिदोष ही तन-मन के रोगों के कारण हैं।
उदाहरणार्थः रात्रिजागरण करने अथवा रूखा-सूखा एवं ठंडा खाना खाने से वायु प्रकुपित होती है। अब जिस व्यक्ति को यह बात समझ में आ गयी हो कि उसके वायु रोग – गैस, कब्जियत, सिरदर्द अथवा पेटदर्द आदि का कारण रात्रिजागरण है। चने, सेम, चावल, जामुन एवं आलू जैसा आहार है, फिर भी वह व्यक्ति मन पर अथवा स्वाद पर नियंत्रण न रख पाने के कारण उनका सेवन करने की गलती करता है तब उसका अंतःकरण उसे वैसा करने से मना भी करता है। उसकी बुद्धि भी उसे उदाहरणों दलीलों से समझाने का प्रयास करती है। धैर्य उसे वैसा करने से रोकता है और स्मरणशक्ति उसे परिणाम की याद दिलाती है, फिर भी वह गलती करता है तो यह प्रज्ञापराध कहलाता है।
तीखा खाने से जलन होती हो, सुजाक हुआ हो, धूप में घूमने से अम्लपित्त (एसिडिटी) के कारण सिर दुखता हो, क्रोध करने से रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) बढ़ जाता हो – यह जानने के बाद भी व्यक्ति अपनी बुद्धि, धृति और स्मृति की अवहेलना करे तो उसे पित्त के शारीरिक अथवा रजोगुणजन्य मानसिक रोग होंगे।
इसी प्रकार घी, दूध, शक्कर, गुड़, गन्ना अथवा केला आदि खाने से या दिन में सोने से सर्दी अथवा कफ, होता हो, मीठा खाने से मधुमेह (डायबिटीज) बढ़ गया हो, नमक, दूध, दही या गुड़ खाने से त्वचा के रोग बढ़ गये हों फिर भी स्वाद लोलुपतावश लोभी व्यक्ति मन पर नियंत्रण न रख सके तो उसे कफ के रोग एवं तमोगुणजन्य रोग आलस्य, अनिद्रा, प्रमाद आदि होंगे ही।

अंतःकरण अथवा अंतरात्मा की आवाज प्रत्येक व्यक्ति को थोड़ी बहुत सुनाई देती ही है। छोटे बच्चे भी पेट भर जाने पर एक घूँट दूध पीने में भी आनाकानी करते हैं। पशु भी पेट भर जाने के बाद अथवा बीमारी पानी तक नहीं पीते। जबकि मनुष्य जैसे-जैसे समझ बढ़ती है, उम्र बढ़ती है वैसे-वैसे ज्यादा प्रज्ञापराध करता नज़र आता है। आहार-विहार के प्रत्येक मामले में सजग रहकर, प्रज्ञापराध न होने देने की आदत डाली जाय तो मनुष्यमात्र आधि, व्याधि एवं उपाधि को निमंत्रण देना बंद करके सम्पूर्ण स्वास्थ्य, सुख एवं शांति को प्राप्त कर सकता है।








 

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