Saturday, 2 February 2013
नवजात शिशु का स्वागत
नवजात शिशु का स्वागत
शिशु के जन्मते समय प्रसूति करनेवाली दाई बालक की नाल जल्दी से काट
देती है। यह नाल माता और बच्चे के शरीर को जोड़ती है और इसी नाल द्वारा बच्चा माता
के शरीर में से सभी पोषण प्राप्त करता है। यह नाल सहसा ही काट डालने से बालक के
प्राण भय से आक्रांत हो जाते हैं। उसके चित्त पर भय के संस्कार गहरे होकर बिम्बित
हो जाते हैं। फिर वह समस्त जीवन भयतुर रहकर व्यतीत करता है।
पुराने विचारों की दाइयाँ तो ठीक परन्तु आज के आधुनिक वैज्ञानिक
साधन-सम्पन्न,
मनोविज्ञान से सुशिक्षित डॉक्टर भी यही नादानी करते जा रहे हैं। बालक के जन्मते ही
तुरन्त उसकी नाल काट देते हैं। बालक के जन्मते ही तुरंत नाल काट देना अच्छा नहीं
है।
बालक का जन्म होते ही, मूर्च्छावस्था दूर करने के बाद जब
बालक ठीक से श्वास-प्रश्वास लेने लगे तब थोड़ी देर बाद स्वतः ही नाल में रक्त का
परिभ्रमण रुक जाता है। नाल अपने-आप सूखने लगती है। तब बालक की नाभि से आठ अंगुल
ऊपर रेशम के धागे से बंधन बाँध दें। जिस प्रकार बाल और बढ़े हुए नाखून काटने से
कष्ट नहीं होता उसी प्रकार ऐसी सूखी हुई नाल काटने से बालक के प्राणों में क्षोभ
नहीं होता और वह सुख की साँस लेता हुआ अपना जीवन आरंभ कर सकता है।
अब बंधन के ऊपर से नाल काटकर शरीर से जुड़े हुए नाल के हिस्से को गले
में धागे अथवा अन्य किसी सहारे से गले में पहना दें ताकि नाल ऊपर की दिशा में रहे
एवं लटके नहीं।
बालक के जन्मोपरांत प्रथम बार दूध पिलाने से पूर्व मधु और घी विषम
प्रमाण में लेकर (अर्थात् घी अधिक हो, मधु कम अथवा मधु अधिक हो, घी कम) मिश्रण तैयार करें। पहले से
बनवाई हुई सोने की सलाई को उस मिश्रण में डुबोकर उससे नवजात शिशु की जीभ पर ॐ
लिखें। उसके कान में ॐ शब्द का उच्चारण बड़ी ही मधुरता से करें और वैदिक मंत्र से
अभिमन्त्रित करके यह मिश्रण पिला देवें। प्रथम तीन दिन तक, जब तक माता के सीने से दूध न आये, यही पिलायें।
इससे बालक प्रज्ञावान, मेधावी, तेजस्वी और ओजस्वी होता है।
स्तनपान कैसे आरंभ करें?
माँ को पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठाकर उसका दायाँ स्तन पानी से
धोकर उसमें से पहले थोड़ा दूध निकलावाकर उसे निम्न मंत्र से अभिमंत्रित करके बालक
को प्रथम दायाँ स्तन देना चाहिए। फिर बालक का सिर पूर्व की ओर रखकर मंत्र से
अभिमंत्रित जलपूर्ण कलश की स्थापना करनी चाहिए।
मंत्रः
चत्वारः
सागरास्तुभ्यं स्तनयोः क्षीरवाहिणः।
भवन्तु
सुभगे नित्यं बालस्य बल वृद्धये।।
पयोऽमृतररसं
पीत्वा कुमारस्ते शुभानने।
दीर्घमायुरवाप्नोतु
देवाः प्राश्यामृत यथा।।
अर्थात् 'हे उत्तम भाग्यशालिनी स्त्री! इस बालक
के विकास के लिए चारों समुद्र हमेशा तेरे स्तनों में दूध बहानेवाले हों। हे सुंदर
मुखवाली स्त्री! जिस प्रकार देवताओं ने अमृत का रस पीकर लंबी आयु को पाया है वैसे
ही यह बालक अमृत जैसे रस वाला तेरा दूध पीकर लंबी आयु प्राप्त करे।'
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